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रामनवमी के पावन अवसर पर एक कविता


सबसे पहले रामनवमी के पावन अवसर पर सभी सुधि पाठको को बहुत बधाई।

रामनवमी से दो दिन पहले यानी की परसों ही भगवान् राम को एक बिल्कुल अलग से नज़रिए से समझने का प्रयास मैंने अपने इसी ब्लॉग पर प्रस्तुत किया था.

आज इस पवन अवसर पर, डा. हरिओम पंवार द्वारा रचित और मेरी अब तक की सर्वाधिक प्रिय कविता "राम मंदिर" प्रस्तुत है. कृपया पांच मिनिट का समय निकाल कर इसे अवश्य सुने और अपनी प्रतिक्रियाओ से अवगत कराये.


राम और राम कथा का दर्शन


तुलसी दासजी द्वारा रचित रामचरितमानस केवल एक काव्य ग्रन्थ नही है अपितु ये तो एक कल्पवृक्ष है। बालकाण्ड इस वृक्ष की सबसे गहरी और मजबूत जड़े है. अयोध्याकाण्ड इसका तना है, अरण्यकाण्ड इसकी टहनियां है, किष्किन्धा काण्ड इसके पत्ते है, सुन्दरकाण्ड इसका फूल है, लंकाकाण्ड इस वृक्ष का फल है और उत्तरकाण्ड इसका रस है.

फूल कि एक विशिष्ट पहचान होती है और वो वृक्ष की सुन्दरता में चार चाँद लगता है और वृक्ष से अलग होकर भी अलग अलग तरीके से काम में लिया जाता है. फूल जहाँ भी खिलता है अपनी ख़ुश्बू हर जगह फैला देता है, ठीक उसी प्रकार रामचरितमानस में सुन्दरकाण्ड की रामचरितमानस में एक विशिष्ट पहचान है. इसके अन्दर में ज्ञान की खुश्बू फैली हुई है और सुन्दरकाण्ड का पाठ रामचरितमानस के साथ साथ और अलग से भी किया जाता है. जैसे फल खट्टे, मीठे और बीज वाले होते है वैसे ही लंकाकाण्ड खट्टा मीठा है और जिसमे युद्ध के विवरण का बीज है. जिस प्रकार रस फलो का निचोड़ है ठीक वैसे ही, ज्ञान और भक्ति मार्ग की अनुपम व्याख्या करता, उत्तरकाण्ड सम्पूर्ण रामचरितमानस का निचोड़ है.

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम समसामयिक है। भारतीय जनमानस के रोम-रोम में बसे श्रीराम की महिमा अपरंपार है। भगवान् राम ने अपने सम्पूर्ण जीवन के द्वारा मनुष्य को उत्कृष्ट जीवन शैली जीने की कला दिखलाई है. उन्होंने ये समझाया है की प्रत्येक मनुष्य "आम" (साधारण) से "राम" (असाधारण) कैसे बन सकता है. भगवान् राम ने एक आदर्श पुत्र, भाई, शिष्य, पति, मित्र और गुरु बन कर ये ही दर्शाया की व्यक्ति को रिश्तो का निर्वाह किस प्रकार करना चाहिए.

राम का दर्शन करने पर हम पाते है कि अयोध्या हमारा शरीर है जो की सरयू नदी यानि हमारे मन के पास है. अयोध्या का एक नाम अवध भी है. (अ + वध) अर्थात जहाँ कोई या अपराध न हों. जब इस शरीर का चंचल मन सरयू सा शांत हो जाता है और इससे कोई अपराध नहीं होता तो ये शरीर ही अयोध्या कहलाता है.

शरीर का तत्व (जीव), इस अयोध्या का राजा दशरथ है. दशरथ का अर्थ हुआ वो व्यक्ति जो इस शरीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय + ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रख सके. तीन गुण सतगुण, रजोगुण और तमोगुण दशरथ तीन रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकई है. दशरथ रूपी साधक ने अपने जीवन में चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूप में प्राप्त किया था.

तत्वदर्शन करने पर हम पाते है कि धर्मस्वरूप भगवान् राम स्वयं ब्रहा है. शेषनाग भगवान् लक्ष्मण वैराग्य है, माँ सीता शांति और भक्ति है और बुद्धि का ज्ञान हनुमान जी है. रावण घमंड का, कुभंकर्ण अहंकार, मारीच लालच और मेंघनाद काम का प्रतीक है. मंथरा कुटिलता, शूर्पनखा काम और ताडका क्रोध है.

चूँकि काम क्रोध कुटिलता ने ने संसार को वश में कर रखा है इसलिए प्रभु राम ने सबसे पहले क्रोध यानि ताडका का वध ठीक वैसे ही किया जैसे भगवान् कृष्ण ने पूतना का किया था । नाक और कान वासना के उपादान माने गए है, इसलिए प्रभु ने शुपर्नखा के नाक और कान काटे ।

भगवान् ने अपनी प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट रूप से दर्शाया है. उपरोक्त भाव से अगर हम देखे तो पाएंगे कि भगवान् सबसे पहले वैराग्य (लक्ष्मण) को मिले थे. फिर वो भक्ति (माँ सीता) और सबसे बाद में ज्ञान (भक्त शिरोमणि हनुमान जी) के द्वारा हासिल किये गए थे. जब भक्ति (माँ सीता) ने लालच (मारीच) के छलावे में आ कर वैराग्य (लक्ष्मण) को अपने से दूर किया तो घमंड (रावण) ने आ कर भक्ति की शांति (माँ सीता की छाया) हर ली और उसे ब्रम्हा (भगवान्) से दूर कर दिया.


भगवान् ने चौदह वर्ष के वनवास के द्वारा ये समझाया कि अगर व्यक्ति जवानी में चौदह पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नाक, आँख, जीभ, चमड़ी), पांच कर्मेन्द्रियाँ (वाक्, पाणी, पाद, पायु, उपस्थ), तथा मन, बुद्धि,चित और अहंकार को वनवास में रखेगा तभी प्रत्येक मनुष्य अपने अन्दर के घमंड या रावण को मार पायेगा.

आज अपने देश में सबसे ज्यादा आसान है तो धर्म और आस्था के नाम पर लूटना। आमजन की इसी कमजोरी के कारण आज कई लोगो ने धर्म के ठेकेदार बन अपनी दुकानदारी जमा ली है. इन सबके पीछे कारण एक ही है कि आज किसी को राम नहीं चाहिए बल्कि सब को राम से चाहिए.

कविवर डा.हरिओम पंवार राम के बारे में कह रहे है कि :
राम दवा है रोग नहीं है सुन लेना, राम त्याग है भोग नहीं है सुन लेना,
राम दया है क्रोध नहीं है जग वालो, राम सत्य है शोध नहीं है जग वालो,
राम हुआ है नाम लोक हितकारी का, रावण से लड़ने वाली खुद्दारी का


तो राम केवल भगवान नहीं है अपितु ये जीवन को सफल बनाने की संजीवनी है. शायद इसीलिए किसी कवि ने क्या खूब कहाँ है :
एक राम राजा दशरथ का बेटा, एक राम घर-घर में बैठा,
एक राम का सकल पसारा, एक राम सारे जग से न्यारा।

तुलसीदासजी ने भी कह दिया है :
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।। राम तो घट घट में हम सबके अन्दर विराजमान है.

उसे पाने के लिए कही बाहर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, जरुरत है तो केवल उसे अपने अन्दर जागृत करने की.

राम हमारे गौरव के प्रतिमान है, राम हमारे भारत की पहचान है,
राम हमारे घट घट के भगवान् है, राम हमारी पूजा है अरमान है,
राम हमारे अंतर्मन के प्राण है, मंदिर मस्जिद पूजा के सामान है


राम कोई शोध का विषय नहीं है बल्कि ये तो हमारा गौरव है, ये हमारे विश्वास का प्रतीक है. राम कभी किसी अमीर को नहीं मिले. उन्होंने दलित उत्थान के लिए कोई आरक्षण का सहारा नहीं लिया बल्कि वो स्वयं जंगल जंगल जा कर दलित और पिछडो के उत्थान में लगे. भगवान् राम ने पिछड़े लोगो के बीच में रह कर उनको काबिल बना कर रामराज्य की स्थापना की थी.


राम नहीं है नारा बस विश्वास है, भौतिकता की नहीं है दिल की प्यास है,
राम नहीं मोहताज किसी के झंडो के, सन्यासी साधू संतो या पंडो के,
राम नहीं मिलते ईटों में गारा में, राम मिले है निर्धन की आंसू धारा में,
राम मिले है वचन निभाती आयु को, राम मिले है घायल पड़े जटायु को,
राम मिलेंगे अंगद वाले पाँव में, राम मिले है पंचवटी की छाँव में,
राम मिलेंगे मर्यादा से जीने में, राम मिलेंगे हनुमान के सीने में,
राम मिलेंगे हनुमान के सीने में,
राम मिले है प्रण हेतु वन वासो में, राम मिले है केवट के विश्वासों में,
राम मिले अनुसूया की मानवता को, राम मिले सीता जैसी पावनता को,
राम मिले ममता की माँ कौशल्या को, राम मिले है पत्थर बनी अहिल्या को,
राम नहीं मिलते मंदिर के फेरो में, राम मिले शबरी के झूठे बेरो में,


मैं भी एक सौगंध राम की खाता हूँ, मैं भी गंगाजल की कसम उठाता हूँ,
मेरी भारत माँ मुझको वरदान है, मेरी पूजा है मेरा अरमान है, मेरी पूजा है मेरा अरमान है,
मेरा पूरा भारत धर्मस्थान है, मेरा राम तो मेरा हिन्दुस्तान है.


(कविता साभार : कविवर डा.हरिओम पंवार की सुप्रसिद्ध कविता राम मंदिर के अंश)
(चित्र साभार : गूगल )

भला उसका धर्म मेरे धर्म से अच्छा कैसे ?


करीब दो दशक या उससे भी पहले, भारत में टीवी पर एक विज्ञापन आना शुरू हुआ था, "भला उसकी साडी मेरी साडी से सफ़ेद कैसे" ठीक वैसा ही हम आज भी देख रहे है जब लोग अनजाने में ही सही कह रहे है "भला उसका धर्म मेरे धर्म से अच्छा कैसे ?" वो ये सिद्ध करना चाहते है कि सदियों पहले लिखे गए हिन्दू धर्म ग्रंथ में जो कुछ लिखा है वो केवल गलत है, और शायद उनके धर्म की एक मात्र पुस्तक ही सब ज्ञान देती है.

वो ये सोचते है कि चूँकि उनका ज्ञान असली है इसलिए अनादि काल से आज तक इस धरा पर जितने भी अनगिनत ऋषि, मुनि, योगी, तपस्वी हुए है जिन्होंने न केवल स्वयं ब्रहा से साक्षात्कार किया है बल्कि अन्य लोगो को भी उस ब्रहा तक पहुचने के जो विभिन्न मार्ग बतलाये है वो सब भ्रम है.

इन दिनों इस विषय पर इन दिनों बहुत तर्क हो रहा है. इस पर काफी लोगो ने, जिसमे मैं स्वयं भी शामिल हूँ, अपने अपने विचार और पक्ष रखे है. मैं इस मत से पूर्णत सहमत हूँ, की दुसरे धर्म के बारे में कुछ भी अनाप शनाप लिखना न केवल दुर्भावनापूर्ण है बल्कि अपमानजनक और दुर्भाग्यपूर्ण भी है. लेकिन क्या हम इतने कमजोर है की किसी एक व्यक्ति या कुछ समूह के द्वारा लिखे गए अनर्गल वार्तालाप को अपने ऊपर हमला समझ ले. मैं एक बार इनके ब्लॉग पर गया और जब ये पाया की यहाँ पर इनकी जिज्ञासा नहीं बल्कि धर्म को नीचा दिखा कर बेइज्जत करने का खेल हो रहा है तो मैंने उस ब्लॉग पर जाना और उसे पढना बंद कर दिया, फिर चाहे वो ब्लॉग, किसी भी कारण से, ब्लोगवाणी की हिट्स में रोज ही प्रथम स्थान क्यों न प्राप्त कर रहा हो.

ये कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी की हिन्दू धर्म में हर चीज़ कि जितनी व्याख्या की गई है, जितना विस्तृत विश्लेषण किया गया है और हर बात को जितना विस्तृत तौर पर समझाया गया है वो वाकई कमाल है. अफ़सोस आज के समय में अक्सर किसी चीज़ को जरुरत से ज्यादा समझाना भ्रम का भी कारण बन जाता है और शायद ये ही मुसीबत की जड़ है.

क्या आप जानते है कि हम लोग भगवान् से कई मुख्यत तीन तरह का रिश्ता रखते है -- सेवक का, साख्य (मित्र) का या शत्रु का. हमारे प्रभु इतने दयालु है की शत्रु भाव रखने वाले को अन्य भाव से भजने वालो से ज्यादा प्यार करते है. अगर विश्वास नहीं होता तो सोचिये क्यों भगवान् श्री कृष्ण ने शिशुपाल को तारते. उन्होंने उसका उद्धार इसलिए नहीं किया वो उनका रिश्ते में भाई लगता था, बल्कि इसलिए किया क्योंकि वो भगवान् को शत्रु भाव से पूजता था.

दरअसल जब हम किसी से शत्रु भाव रखते है तो खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते हर समय जाने अनजाने हमारे दिमाग में हमारे उस शत्रु का ही ख्याल रहता है. इसी तरह से हूँ कही न कही उससे जुड़ते जाते है. इसलिए जब कोई भगवान् को शत्रु भाव याद करता है तो उस पर भगवान् जल्दी प्रसन्न हो जाते है. तुलसी बाबा ने रामचरितमानस में भी लिखा है :
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से तो दसों दिशाओं में कल्याण होता है।


हर चीज़ को देखने के दो नजरिया होते है. एक कहता है कि गिलास आधा खाली है और दूसरा देखता है कि वो ही गिलास आधा भरा हुआ है. दोनों ही सही है. ठीक इसी प्रकार से बेशक अगर कोई गलत ढंग से दुष्प्रचार करने का कार्य कर रहा है तो हम ये सोचे कि इस बहाने से ही सही, वो अपना कुछ समय प्रभु नाम पर शोध करने और टाइप करने में तो लगा रहा है. कही तो उसके ध्यान में भगवान् तो आ रहे है. बस भगवन से इतनी नजदीकी इनकी व्यक्तिगत सफलता के लिए काफी है. हमारे तुलसी बाबा ने कह दिया है :
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥ गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
श्री रघुनाथजी अत्यंत कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥


फिर हम तो आखिर में इंसान है. शास्त्रों में भी एक कथा आती है कि एक चोर जो शिवरात्रि के दिन सुबह से ही भूखा था वो प्रभु कृपा से रात को किसी गाँव के शिव मंदिर में पहुँच गया. वहां उसे शिवलिंग के ऊपर पानी की धार छोड़ता एक चांदी / सोने का लोटा लटका दिखा. अब उसने आव देखा न ताव और शिवलिंग पर खड़ा हो गया और लगा लोटा उतरने का प्रत्यं करने. बस उसी समय भोलेनाथ प्रकट हो गए और उसे वर मांगने को कहाँ. प्रभु ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि अन्य भक्त तो मंदिर में आकर भगवान् को एक लोटा जल, या दूध या पंचामृत चढ़ाते थे पर इस भक्त ने तो खुद को ही शिव को अर्पित कर दिया था. तो भगवान् किस रूप में किसका कल्याण करते है ये केवल प्रभु ही जानते है.

इस बहसे से एक फायदा और हुआ. वो ये की इस बहाने से सही आप और हम भी कुछ भगवान् के बारे में चर्चा कर पा रहे है. दरअसल मुझे लगता है ये अन्य लोगो के ज्ञान की परीक्षा का समय है. धर्म को धारण करने का अर्थ धैर्यता दिखाना भी है. इस तरह के अनर्गल पोस्ट देखकर, हमारी भक्ति में कमी नहीं होती बल्कि वो और मजबूत होती है. इनसे हमें ये बेशक समझने में मदद मिलती है कि हमारे धर्म का कोई कैसे गलत निरूपण कर सकता है जिससे भ्रांतियां फैलती है. फिर कबीरदासजी ने भी तो कहाँ है : निंदक नियरे राखिये.....

तो इसी बहाने इन्हें भगवान् के बारे में कुछ पढने, लिखने और शोध करने दीजिये.

चूँकि यहाँ पर काफी बहस हो रही थी इसलिए ये एक पोस्ट बीच में ही लिखनी पड़ गई. भगवान राम और उनके चौदह वर्ष के वनवास का तात्पर्य समझे का प्रयास, राम और राम कथा दर्शन अगली पोस्ट में...

शास्त्रों में जिस रक्ष संस्कृति का वर्णन है वो क्या है ?


जैसा की मैंने कल के अपने लेख में लिखा था हिन्दू धर्म ग्रन्थ में लिखे हर श्लोक के चार प्रकार के अर्थ (शब्दार्थ, भावार्थ, व्यंगार्थ और गूढार्थ) निकाले जा सकते है. संत कवी तुलसीदासजी ने ये पहले ही जान लिया था कि आगे कलयुग में आने वाले समय में आम मनुष्य, सदियों पहले संस्कृत जैसी कठिन भाषा में लिखे गए इन गूढ़ अर्थो, वाले ग्रंथो को समझने में असमर्थ होगा. इसीलिए उन्होंने रामचरितमानस की आम जन की भाषा में काव्य के रूप में रचना की.

आज हम देख रहे है कि लोग अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार ग्रंथो का रस निचोड़ रहे है. किसी को इसमें से प्रेरणा लेकर उत्कृष्ट और सफल जीवन जीने मार्गदर्शन मिल रहा है वही किसी को इसमें केवल कीचड़ और गंदगी दिख रही है. कहने का तात्पर्य ये है की जैसी हमारी भावना होती है हम लोग उस चीज़ को वैसे ही देखते है. तुलसी बाबा ने रामचरितमानस में भी लिखा है :

राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे |
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा |
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा |
रबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥


भगवान श्री राम राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी॥ महान रणधीर (राजा लोग) श्री रामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों। कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो॥ छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठे) थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देने वाला देखा॥

गूढार्थ शब्द दो शब्दों को जोड़ कर बना है जो है गूढ़ और अर्थ. गूढ़ कहते है पहेली को, या भेद को. तो गूढार्थ यांनी वो अर्थ जो शायद हमे उन शब्दों को पढ़कर तो शायद न मिले लेकिन फिर भी कुछ ख़ास अर्थ हो जो घटना में छिपा हो. अक्सर हम लोग पौराणिक ग्रंथो में से लिए गए किसी शब्द, नायक या घटना की एक छवि अपने दिमाग में अंकित कर लेते है. फिर हम उसके इर्द गिर्द अपने ख्यालो के हिसाब से अन्य घटनाओ को भी रूप देने की कोशिश करते है. आइये समझे की शास्त्र में राक्षस या रावण किस प्रकार के व्यक्ति को कहते है.

राक्षस : ऐसा कहते है कि पहले के ज़माने में राक्षस लोग होते थे जो मनुष्यों को मार कर खा जाते थे या जो आदमियों का खून पीते थे। क्या आपको नहीं लगता इस राक्षस सरीखे लोग आज भी हम सब के बीच में है. मार कर खा जाना या खून पीने से यहाँ तात्पर्य होता था की वो लोग जो दुसरे लोगो को परेशान किया करते थे या चैन से जीने नहीं देते थे वो लोग राक्षस सामान थे.

आज एक नेता पांच करोड़ रुपयों की बनी माला पहनती है, पार्टी के अधिवेशन में दो सौ करोड़ से पांच सौ करोड़ का खर्चा किया जाता है. क्या आपको नहीं लगता ये पैसा कितने कल्याणकारी कामो में सही इस्तेमाल किया जा सकता था. इस पैसे से कितनी सड़के बन सकती थी जिससे कितने लोगो को रोजगार मिल सकता था और कितने करोड़ लोगो को रोज आने जाने में समय और महंगे तेल की बचत कर सकते थे. इस पैसे से कितने गाँव में बिजली या पानी पहुचाया जा सकता था. चाहे सारा बुद्धिजीवी वर्ग इस कृत्य की निंदा कर रहा है लेकिन अभी खबर आई है की मुख्यमंत्री को पार्टी सांसदों, मंत्रियों और अधिकारियों की बैठक के दौरान मीडिया के सामने उन्हें नोटों की एक और माला पहनाई गई और पार्टी का कहना है कि अब दलित या दौलत की महारानी को सिर्फ़ नोटों की माला ही पहनाई जाएगी.

एक सर्वे के अनुसार देश में १९९२ से अब तक देश में ७३ (73) लाख करोड़ रूपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए है. ये धांधली का पैसा हमारे देश के ५३ (53) लाख करोड़ के सकल घरेलु उत्पाद से २७% (27%) ज्यादा है. इतने पैसे से देश में तीस लाख रूपये के लागत से २.४ (2.4) करोड़ प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोले जा सकते थे. यानि देश के हर गाँव में ३ चिकित्सा केंद्र. पांच लाख रूपये प्रत्येक की लागत से १४.६ (14.6) करोड़ निम्न / मध्य वर्गीय मकान बन सकते थे. ३.०२ (3.02) करोड़ रुपयों की लागत से २४.१ (24.1) केंद्रीय विद्यालय बन सकते थे जिसमे प्रत्येक में कक्षा छ से बारह तक के दो खंड या सेक्शन हो सकते थे. सम्पूर्ण भारत देश के परिधि को ९७ (97) बार चक्कर काटते हुए १४.६ (14.6) लाख किलोमीटर की सड़क बन सकती थी. चूँकि ये आज का विषय नहीं है इसलिए अगर आप इस भ्रष्टाचार के बारे में और विस्तृत जानकारी पढना चाहते है तो कृपया यहाँ क्लिक करे.

क्या आपको नहीं लगता कि ये आम जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई कहने वाले किसी भी राक्षस से कम है. इतने व्यपाक भ्रष्टाचार के चलते कितने लोग अकाल काल के गाल में समां गए होंगे. तो बस इसी तरह के भयानक राक्षस पुराने समय में भी होते थे. राक्षसों के बड़े बिखरे बाल, बहार निकले दांत आदि ये केवल चित्रकारों की कपोल कल्पना है. रक्ष संस्कृति को आज के राक्षस लोग बाकायदा जिन्दा रखे हुए है.

रावण : रावण घमंड का प्रतीक है. हमें उल्लेख मिलता है की रावण के दस सर और बीस हाथ थे. अक्सर चित्रकारों ने भी रावण को चित्रों में भी इसी तरह उकेरा है. जिस व्यक्ति की दसो इन्द्रियां ( कर्मेन्द्रिय + ज्ञानेन्द्रिय) सर उठा कर खड़ी हो और वो बीसियों तरीके से जुगाड़ लगाकर इन इन्द्रियों को तृप्त करने में लगा हो वो ही रावण है।
रावण का एक अर्थ और भी निकलता है। रावण उपरोक्त बतलाये राक्षस प्रवर्ती के लोगो के बीच रहता था और न केवल रहता था बल्कि उनका राजा भी था. राजा के चूँकि कई दुश्मन होते है इसलिए उसको खतरा ज्यादा होता है और इसलिए उसे ज्यादा सतर्क रहना पड़ता है. ज्योतिष शास्त्र में दस दिशाए बतलाई गई है जो है पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान (उत्तर-पूर्व), वायव्य (उत्तर-पश्चिम), नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), आग्नेय (दक्षिण-पूर्व), आकाश (उर्ध्व), पाताल (अध). रावण के बारे में कहाँ जाता है कि वो इतना चतुर था कि उसे दसो दिशाओ में घट रही घटनाओं की सदैव जानकारी रहती थी इसलिए ऐसा लगता था की रावण के दस सर है। जो व्यक्ति इतना चतुर हो कि उसे दसो दिशाओ में घट रही घटनाओं की सदैव जानकारी रहे, और उन सूचनाओं को वो केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए इस्तेमाल करे, वो रावण ही है

अक्सर जो लोग अनैतिक या गलत कार्य करते है वो उसे जल्द से जल्द अंजाम देना चाहते है. रावण शायद हर कार्य को त्वरित गति से करने की क्षमता रखता होगा. माँ सीता के अपहरण में भी उसने तुरंत ही अपने कार्य को अंजाम दिया था. दसो दिशाओ की खबर रखने के कारण रावण दशानन कहलाया. उन खबरों पर तुरंत ही कोई फैसला लेने के कारण ये काह जाने लगा की रावण के दस सर और बीस हाथ है. उसके जैसी क्षमता किसी और में नहीं इसलिए कोई उसकी गद्दी की तरफ नज़र उठा कर न देखे.

अगली पोस्ट में भगवान राम और उनके चौदह वर्ष के वनवास का तात्पर्य समझे का प्रयास...
(चित्र : साभार गूगल )

किसी भी धर्म के बारे में गलत बोलना या लिखना क्या उचित है


ये बात बिलकुल सही है कि समय के साथ साथ हिन्दू धर्म का हास होता गया है और आज समाज में व्याप्त बाबाओ के विभिन्न रूप जैसे की हत्यारा बाबा, बिचौलिया बाबा, सेक्स रैकेट वाला बाबा, स्टिंग बाबा, अय्याश बाबा, गाली बोलता बाबा, बिस्तर में बाबा, ढोंगी बाबा, पाखंडी बाबा इत्यादि इसका जीता जागता प्रमाण है. बचपन में कहावते पढ़ी थी, "अधजल गगरी झलकत जाए / थोथा चना बाजे घना" दोनों ही कहावते आज के सन्दर्भ में अक्षरश सही बैठती है.


जब धर्म का निरूपण करने वाले अल्पज्ञानी, अज्ञानी, मायावी या लालची हो जाते है तो कमोबेश ऐसा ही कुछ होता है, जैसा की हमें आजकल हर रोज देखने, सुनने या पढने को मिल रहा है. यहाँ मायावी शब्द को कोई राक्षस तो कोई बहरूपिया समझ सकता है, कोई अन्य व्यक्ति इसे मोह और माया के जाल में फंसा हुआ समझ सकता है. वेद कहते है कलयुग में मनुष्य अल्प आयु के होते है और तर्क बहुत करते है. तुलसी बाबा ने कलयुग की महिमा का वर्णन करते हुए उत्तर काण्ड में साफ़ लिखा है कि :

बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥

कलयुग में संन्यासी वो होगा जो बहुत धन लगाकर घर सजाएगा सन्यासियों में वैराग्य नहीं रह जायेगा, उनको विषयों ने हर लिया होगा, तपस्वी धनवान हो जायेंगे और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ ऐसी ही होगी. प्रत्यक्षत:,आज हम सब देख रहे है किसी बाबा का सौ करोड़ का तो किसी का तीन सौ करोड़ का आश्रम हैं, विषयों से दूर रहने वालो के पास उनके अपने विमान है, मर्सिडीज़ और BMW जैसी गाड़िया है.

आगे तुलसीदासजी लिखते है :
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥


कलियुग में धनी लोग मलिन होने पर भी कुलीन माने जायेंगे । ये कलयुग है जहाँ द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते है | अपने इन्सान होने पर शर्म आ गया जब अभी श्री पी सी गोदियाल जी के ब्लॉग पर पढ़ा की देश में "आज जहां एक तरफ़ करोडों की आवादी भुखमरी के कगार पर खडी है, कानून और व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि एक बेखौफ़ दुष्कर्मी जो एक युवति से दुष्कर्म की सजा काट रहा है, जेल से छूटकर आता है तो फिर उसी युवति को सरे-आम उठा कर ले जाता है। और उसके साथ मुह काला करने के बाद उसे नोऎडा की सड्कों पर फेंक देता है।" इंसानियत को शर्मसार करता वो मलिन हैवान इस कृत्य को केवल इसलिए अंजाम दे पाता है क्योंकि वो आज के कलयुग में कुलीन कहलाता है. कलयुग का इससे अच्छा उदहारण क्या मिल सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास दुर्घटना में मरने वालो के लिए अनुदान नहीं है लेकिन पार्टी के अय्याश और अय्याशियों को जश्न मनाने के लिए दलित के नाम पर पांच सौ करोड़ का खर्चा कर सकते है. क्या ये राशि गरीबो के व्यवसायिक प्रशिक्षण में खर्च करते तो ज्यादा बेहतर नहीं होता. लेकिन वो आज के कुलीन लोग है जो चाहे वो कर सकते है.

ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास जी वाल्मीकि के अवतार हैं| हिंदू मान्याताओं के अनुसार आत्मा अमर है| वाल्मीकि ने "रामायण" की रचना की थी और उसका पाठ करके लंबे अंतराल तक हिंदू एक सूत्र में बंधते रहे| ऐसा कहते है कि कालान्तर में संस्कृत भाषा का ह्रास हो जाने के कारण "रामायण" का प्रभाव क्षीण होने लगा तब वाल्मीकि को "रामायण" के लिये तुलसीदास के रूप में अवतार लिया.

यहाँ ब्लॉगजगत पर भी एक ज्ञानी महोदय अपने ज्ञान का प्रसार करने में लगे हुए है. उन्हें शायद अपने धर्म से सम्बंधित इतनी अधिक जानकारी है की वो दुसरे धर्म में या यूँ कहे हिन्दू धर्म पर अक्सर व्याख्या करते देखे गए है. कुछ लोग है जो उनके इन कुतर्को को पढ़ते है और बहस करते है या सलाह देते है. अफ़सोस की आज के समय में उनके धर्म को, उनके कुछ धर्मगुरूओ ने अगुवा कर लिया है. धर्म के नाम पर खून बहाने वाले वे धर्मगुरु, आज उस धर्म का गलत प्रचार कर के पुरे विश्व में उस धर्म की एक गलत छवि पेश कर रहे है. अंग्रेजी में एक कहावत है "Attack is the best defense". इसलिए शायद ये महाशय अपने आप को ग्लानी से बचाने के लिए दुसरो के धर्म पर हल्ला बोल रहे है. वो ये भूल गए है की सनातन धर्म कोई दो तीन पांच सौ या हज़ार साल नया धर्म नहीं है. दुसरो पर ऊँगली उठाते वक़्त हम ये भूल जाते है की चार उंगलिया हमारी तरफ आ रही है.

मुझे पता नहीं इनको अपने स्वयं के धर्म की कितनी जानकारी है लेकिन अगर इन महोशय के हिन्दू धर्म के अल्पज्ञान को अगर परिभाषित करना हो तो इतना ही कहूँगा की हिन्दू धर्म ग्रंथो में से अब तक ये जो भी पढ़ कर समझ उसमे से ये केवल इन्हें विवाद, बहस या कीचड़ ही निकाल सके. तो क्या क्या हिन्दू धर्म ग्रंथो में कुछ अनर्गल है. नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है. जैसे जल और ओले में भेद नहीं । दोनों जल ही हैं, ऐसे ही वेद और ग्रंथो में भेद नहीं है, दोनों ही भ्रम का निवारण करते है और भागवद मार्ग प्रशस्त करते है. भेद है तो केवल हमारी अल्प बुद्धि में है जो उस चीज़ को सही ढंग से समझ नहीं सकती. इसे यूँ समझे की, एक कक्षा में कई बच्चे पढ़ते है, उस कक्षा में किसी एक विषय को पढ़ने वाला शिक्षक भी एक ही होता है. फिर भी कोई बच्चा बहुत अच्छे अंक लेकर अव्वल आता है और आगे जाकर विख्यात होता है और कोई फिसड्डी रह जाता है, जो भविष्य में कुख्यात बन जाता है. वैसे ही धर्म ग्रन्थ, फिर चाहे वो किसी भी धर्म के क्यों न हो सब एक ही सन्देश देते है, लेकिन कोई समझ जाता है और कोई ....

शास्त्र कहते है "यदा यदा ही वाक्य मुच्च्यती बाणम, तदा तदा ही जाती कुल प्रमाणम्" यानि जैसे जैसे आप अपने वाक्यों के बाण छोड़ते है वैसे वैसे ही आप अपने आप को दुसरो के सामने परिभाषित करते है, कि आप खुद क्या हो ? बस क्या कहे समझ अपनी अपनी, सोच अपनी अपनी.

जैसा मैंने पहले भी कहाँ था स्मृति हमें बताती है की व्यक्ति को एक चौथाई ज्ञान आचार्य या गुरु से मिल सकता है, एक चौथाई स्वयं के आत्मावलोकन से, अगला एक चौथाई अपने संग या संगती में विचार विमर्श करने से और आखिरी एक चौथाई अपने जीवन शैली, जिसमे सद्विचार और सदव्यवहार को जोड़ना, कमजोरीयों को हटाना, अपना सुधार करते रहना और समय के अनुकूल परिवर्तन करना शामिल है, से मिलता है.

जिस प्रकार अगर कही दूध की बोतल होगी तो उसमे से दूध निकलेगा, शहद की होगी तो उसमे से शहद निकलेगा, पानी की बोतल में पानी मिलेगा और शराब की बोतल में...... ठीक वैसे ही जैसा हम अवलोकन करेंगे, जैसी संगती करेंगे, या जैसा हम देखेंगे वैसा ही हमें ये संसार दिखेगा और जैसा हम सोचेंगे ठीक वैसा ही हमें ज्ञान प्राप्त होगा.

कही किसी ने कहाँ, की शाम हो गई है. अब ये सुन कर एक मजदुर सोचता है की आज का कार्य बंद करके घर जाने का समय हो गया है, ग्वाले सोच रहे है की गोधुली वेला हो गई है अपनी गायो को वापस ले जाने के लिए इकट्ठा करना शुरू करो, किसी संत ने सोचा की भगवान् की संध्या पूजा का वक़्त हो गया है और नाचने वाली सोचती है की धंधे का समय हो गया है. एक ही बात का चार अलग अलग व्यक्तियों ने अलग अलग मतलब निकाला.

हिन्दू धर्म में जिस प्रकार चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास), चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद), चार धाम [बद्रीनाथ (उत्तर में), जगन्नाथपुरी (पूर्व में), रामेश्वरम (दक्षिण में), द्वारका (पश्चिम में)], चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष),चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य , सूद्र) बतलाये गए है, ठीक उसी तरह धर्म ग्रन्थ में लिखे हर श्लोक के भी चार प्रकार के अर्थ (शब्दार्थ, भावार्थ, व्यंगार्थ और गुडार्थ) का समावेश है. लेकिन जिनका आज के समय में इस प्रकार से व्याख्या करना आज किसी भी व्यक्ति के लिए संभव नहीं है. आपने अभी देखा की किस प्रकार उपरोक्त एक वाक्य का मतलब सब लोगो ने अपने अपने हिसाब से निकाल लिए, ठीक ऐसा ही कुछ वेद शास्त्रों के साथ हो रहा है. सदियों पहले लिखे हुए वेद आज पूर्ण रूप से अपने मूल रूप में है ये कहना अतिश्योक्ति पूर्ण ही होगा.

शास्त्रों में जिस रक्ष संस्कृति का वर्णन है वो आखिर है क्या ? पढ़िए भाग में.....

हिन्दू धर्म की कुछ प्रचलित विशेषताएं

हिंदुत्व केवल धर्म नही अपितु ये सफल जीवन जीने का तरीका है. हिंदू धर्म में कई विशेषताएँ है. इसको सनातन धर्म भी कहाँ या है. भागवद गीता के अनुसार सनातन का अर्थ होता है वो जो अग्नि से, पानी से , हवा से, अस्त्र से नष्ट किया जा सके और वो जो हर जीव और निर्जीव में विद्यमान है. धर्म का अर्थ होता है जीवन जीने की कला. सनातन धर्म की जड़े आद्यात्मिक विज्ञान में है. सम्पूर्ण हिंदू शास्त्रों में विज्ञान और आध्यात्म जुड़े हु है. यजुर्वेद के चालीसवे अध्याय के उपनिषद में ऐसा वर्णन आता है कि जीवन की समस्याओ का समाधान विज्ञान से और आद्यात्मिक समस्याओ के लिए अविनाशी दर्शनशास्त्र का उपयोग करना चाहिए.

स्मृति से हमें बताती है की व्यक्ति को एक चौथाई ज्ञान आचार्य या गुरु से मिल सकता है, एक चौथाई स्वयं के आत्मावलोकन से, अगला एक चौथाई अपने संग या संगती में विचार विमर्श करने से और आखिरी एक चौथाई अपने जीवन शैली से जिसमे सद्विचार और सदव्यवहार को जोड़ना, कमजोरीयों को हटाना, अपना सुधार करते रहना और समय के अनुकूल परिवर्तन करना शामिल है. अकसर आज के मानव के मन में कई बार रीती रिवाजो को लेकर क्यो, कैसे और किसलिए आदि प्रश्न उठते रहते है. आईये हिंदू धर्म से सम्बंधित कुछ जिज्ञासाओं का जवाब पाने का प्रयास करे. आप जिस भी प्रश्न का उत्तर जानना चाहते है कृपया उस प्रश्न पर क्लिक करे.
  1. ॐ का उच्चारण क्यों करते है ?
  2. भगवान के सामने दीपक क्यों प्रज्वालित किया जाता है ?
  3. घर में पूजा का कमरा क्यों होता है ?
  4. हम नमस्ते क्यों करते है ?
  5. हम बडो के पैर क्यों छूते है ?
  6. हम आरती क्यों करते है ?
  7. भगवान को नारियल क्यों अर्पित किया जाता है ?
  8. ॐ शांति शांति शांति में शांति शब्द का उच्चारण तीन बार क्यों किया जाता है ?
  9. कलश पूजा क्यों की जाती है ?
  10. शंख क्यों बजाया जाता है ?
  11. उपवास का क्या महत्त्व है ?
  12. पुस्तक को पाँव से क्यों नहीं छूते है ?




ॐ का उच्चारण क्यों करते है ? ?

हिंदू में शब्द के उच्चारण को बहुत शुभ माना जाता है. प्रायः सभी मंत्र से शुरू होते है. शब्द का मन, चित्त, बुद्धि और हमारे आस पास के वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. ही एक ऐसा शब्द है जिसे अगर पेट से बोला जाए तो दिमाग की नसों में कम्पन होता है. इसके अलावा ऐसा कोई भी शब्द नही है जो ऐसा प्रभाव डाल सके.

शब्द तीन अक्षरो से मिल कर बना है जो है "", "" और "". जब हम पहला अक्षर "" का उच्चारण करते है तो हमारी वोकल कॉर्ड या स्वरतन्त्री खुलती है और उसकी वजह से हमारे होठ भी खुलते है. दूसरा अक्षर "" बोलते समय मुंह पुरा खुल जाता है और अंत में "" बोलते समय होठ वापस मिल जाते है. अगर आप गौर से देखेंगे तो ये जीवन का सार है पहले जन्म होता है, फिर सारी भागदौड़ और अंत में आत्मा का परमात्मा से मिलन.

के तीन अक्षर आद्यात्म के हिसाब से भी ईश्वर और श्रुष्टि के प्रतीकात्मक है. ये मनुष्य की तीन अवस्था (जाग्रत, स्वपन, और सुषुप्ति), ब्रहांड के तीन देव (ब्रहा, विष्णु और महेश) तीनो लोको (भू, भुवः और स्वः) को दर्शाता है. अपने आप में सम्पूर्ण मंत्र है.

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भगवान के सामने दीपक क्यों प्रज्वालित किया जाता है ?

हर
हिंदू के घर में भगवान के सामने दीपक प्रज्वालित किया जाता है. हर घर में आपको सुबह, या शाम को या फिर दोनों समय दीपक प्रज्वालित किया जाता है. कई जगह तो अविरल या अखंड ज्योत भी की जाती है. किसी भी पूजा में दीपक पूजा शुरू होने के पूर्ण होने तक दीपक को प्रज्वालित कर के रखते है.

प्रकाश
ज्ञान का घोतक है और अँधेरा अज्ञान का. प्रभु ज्ञान के सागर और सोत्र है इसलिए दीपक प्रज्वालित कर प्रभु की अराधना की जाती है. ज्ञान अज्ञान का नाश करता है और उजाला अंधेरे का. ज्ञान वो आंतरिक उजाला है जिससे बाहरी अंधेरे पर विजय प्राप्त की जा सकती है. अत दीपक प्रज्वालित कर हम ज्ञान के उस सागर के सामने नतमस्तक होते है.

कुछ
तार्किक लोग प्रश्न कर सकते है कि प्रकाश तो बिजली से भी हो सकता है फिर दीपक की क्या आवश्यकता ? तो भाई ऐसा है की दीपक का एक महत्त्व ये भी है कि दीपक के अन्दर जो घी या तेल जो होता है वो हमारी वासनाएं, हमारे अंहकार का प्रतीक है और दीपक की लौ के द्वारा हम अपने वासनाओं और अंहकार को जला कर ज्ञान का प्रकाश फैलाते है. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि दीपक की लौ हमेशा ऊपर की तरफ़ उठती है जो ये दर्शाती है कि हमें अपने जीवन को ज्ञान के द्वारा को उच्च आदर्शो की और बढ़ाना चाहिए. अंत में आइये दीप देव को नमस्कार करे :

शुभम करोति कलयाणम् आरोग्यम् धन सम्पदा, शत्रुबुध्दि विनाशाय दीपज्योति नमस्तुते ।।
सुन्दर और कल्याणकारी, आरोग्य और संपदा को देने वाले हे दीप, शत्रु की बुद्धि के विनाश के लिए हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।

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पूजा का कमरा घर में क्यों होता है ?

घरो
में पूजा के कमरे का अपना महत्त्व है. हर घर में पूजा का कमरा होता है जहाँ पर दीपक लगा कर भगवान की पूजा की जाती है, ध्यान लगाया जाता है या पाठ किया जाता है. भगवान चूँकि पुरी श्रष्टि के रचियेता है और इस हिसाब से घर के असली मालिक भी भगवान ही हुए. भगवान का कमरा ये भावः दर्शाता है की प्रभु इस घर के मालिक है और घर में रहने वाले लोग भगवान की दी हुई जमीन पर इस घर में रहते है. ये भावः हमें झूठा अभिमान और स्वत्वबोध से दूर रखता है.

आदर्श
स्तिथि में मनुष्य को ये मानना चाहिए की भगवान ही घर के मालिक है और मनुष्य केवल उस घर का कार्यवाहक प्रभारी है. एक अन्य भावः ये भी है की ईश्वर सर्वव्यापी है और घर में भी हमारे साथ रहता है इसलिए घर में एक कमरा प्रभु का है.

जिस
तरह घर में प्रत्येक कार्य के लिए अलग अलग कक्ष होते है, जैसे आराम के लिए शयनकक्ष, खाना बनाने के लिए रसोईघर, मेहमानों के लिए ड्राइंग रूम या आगंतुक कक्ष ठीक उसी प्रकार हमारे आध्यात्म के लिए भगवान का कमरा होता है जहाँ पर बैठ कर ध्यान पूजा पाठ और जप किया जा सकता है.

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हम नमस्ते क्यों करते है ?

शास्त्रों
में पाँच प्रकार के अभिवादन बतलाये गए है जिन में से एक है "नमस्कारम". नमस्कार को कई प्रकार से देखा और समझा जा सकता है. संस्कृत में इसे विच्छेद करे तो हम पाएंगे की नमस्ते दो शब्दों से बना है नमः + ते. नमः का मतलब होता है मैं (मेरा अंहकार) झुक गया. नम का एक और अर्थ हो सकता है जो है + में यानी की मेरा नही.

आध्यात्म
की दृष्टी से इसमे मनुष्य दुसरे मनुष्य के सामने अपने अंहकार को कम कर रहा है. नमस्ते करते समय में दोनों हाथो को जोड़ कर एक कर दिया जाता है जिसका अर्थ है की इस अभिवादन के बाद दोनों व्यक्ति के दिमाग मिल गए या एक दिशा में हो गये.

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हम बडो के पैर क्यों छूते है ?

भारत
में बड़े बुजुर्गो के पाँव छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है. ये दरअसल बुजुर्ग, सम्मानित व्यक्ति के द्वारा किए हुए उपकार के प्रतिस्वरुप अपने समर्पण की अभिव्यक्ति होती है. अच्छे भावः से किया हुआ सम्मान के बदले बड़े लोग आशीर्वाद देते है जो एक सकारात्मक उर्जा होती है. आदर के निम्न प्रकार है :

प्रत्युथान
: किसी के स्वागत में उठ कर खड़े होना
नमस्कार : हाथ जोड़ कर सत्कार करना
उपसंग्रहण : बड़े, बुजुर्ग, शिक्षक के पाँव छूना
साष्टांग : पाँव, घुटने, पेट, सर और हाथ के बल जमीन पर पुरे लेट कर सम्मान करना
प्रत्याभिवादन : अभिनन्दन का अभिनन्दन से जवाब देना

किसे
किसके सामने किस विधि से सत्कार करना है ये शास्त्रों में विदित है. उदहारण के तौर पर राजा केवल ऋषि मुनि या गुरु के सामने नतमस्तक होते थे.

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हम आरती क्यों करते है.

जब भी कोई घर में भजन होता है, या कोई संत का आगमन होता है या पूजा पाठ के बाद हिंदू धर्म में दीपक को दायें से बाएँ तरफ़ वृताकार रूप से घुमा कर साथ में कोई वाद्य यन्त्र बजा कर अन्यथा हाथ से घंटी या ताली बजा कर भगवान की आरती की जाती है. ये पूजा की विधि में षोडश उपचारों में से एक है. आरती के पश्च्यात दीपक की लौ के उपर हाथ बाएँ से दायें घुमा कर हाथ से आँखों और सर को छुआ जाता है.

आरती
में कपूर जलाया जाता है वो इसलिए की कपूर जब जल जाता है तो उसके पीछे कुछ भी शेष नही रहता. ये दर्शाता है कि हमें अपने अंहकार को इसी तरह से जला डालना है की मन में कोई द्वेष, विकार बाकी रह जाए. कपूर जलते समय एक भीनी सी महक भी देता है जो हमें बताता है कि समाज में हमें अंहकार को जला कर खुशबु की तरह फैलते हुए सेवा भावः में लगे रहना है.

दीपक
प्रज्वालित कर के जब हम देव रूपी ज्ञान का प्रकाश फैलाते है तो इससे मन में संशय और भय के अंधकार का नाश होता है. उस लौ को जब हम अपने हाथ से अपनी आँखों और अपने सर पर लगा कर हम उस ज्ञान के प्रकाश को अपनी नेत्र ज्योति से देखने और दिमाग से समझने की दुआ मांगते है.

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भगवान को नारियल क्यों अर्पित किया जाता है ?

आप देखेंगे की मन्दिर में आम तौर पर नारियल अर्पित किया जाता है. शादी, त्यौहार, गृह प्रवेश, नई गाड़ी के उपलक्ष में या किसी प्रकार के अन्य उत्सव या शुभ कार्य में भी प्रभु को नारियल अर्पित किया जाता है. प्रभु को नारियल अर्पित के पीछे जो मुख्य कारण है, आइये उनका अवलोकन करे. नारियल अर्पित करने से पहले उसके सिर के अलावा सारे तंतु या रेशे उतार लिए जाते है. ऐसे में अब ये नारियल मानव खोपडी के सामान दीखता है और इसे फोड़ना इस बात का प्रतीक है कि कर हम अपने अंहकार को तोड़ रहे है. नारियल के अन्दर का पानी हमारी भीतर की वासनाये है जो हमारे अंहकार के फूटने पर बह जाती है.

नारियल
निस्वार्थता का भी प्रतीक है. नारियल के पेड़ का तना, पत्ती, फल (नारियल या श्रीफल) मानव को घर का छज्जा, चटाई, तेल, साबुन आदि बनाने में काम में आता है. नारियल का पेड़ समुद्र का खारा पानी लेकर मीठा, स्वादिष्ट और पौष्टिक नारियल और नारियल का पानी देता है.

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ॐ शांति शांति शांति में शांति शब्द का उच्चारण तीन बार क्यों किया जाता है ?

मनुष्य
एक सामाजिक प्राणी है जो हमेशा भीतर और बहार शांति की खोज में लगा रहता है. मनुष्य या तो अपने लिए ख़ुद विघ्न खड़ा करता है या फिर दुसरे लोग उसकी शांति में बाधा उत्पन्न करते है. जब तक कोई उपद्रव नही होता वहां शांति रहती है. वादविवाद शांत होने के बाद शांति उसी तरह कायम हो जाती है जैसे पहले थी. आज के वातावरण में झमेलों के चलते शांति की खोज बहुत कठिन है. कुछ लोग होते है जो कठिन से कठिन परिस्तिथि में भी शांत रहते है. हिंदू धर्म में शांति का आह्वान करने के लिए मंत्र, यज्ञ आदि के अंत में तीन बार शांति का उच्चारण किया जाता है जिसे त्रिव्रम सत्य भी कहा जाता है. सम्पूर्ण दुखो के तीन उद्भव स्थान माने गए है और तीन बार शांति का उच्चारण करके इन उद्भव स्थानों को संबोधित किया जाता है.

पहली
बार शांति का उद्घोष अधिदेव शांति के लिए किया जाता है. इसमे ईश्वरीय शक्ति जैसे प्राकृतिक आपदाये, भूकंप, ज्वालामुखी, बाढ़ आदि जिन पर मानव का कोई नियंत्रण है है उसे शांत रखने की प्रार्थना की जाती है.
दूसरी बार शांति का उद्घोष आधिभौतिक शांति के लिए किया जाता है. इसमे दुर्घटना, प्रदुषण, अधर्म, अपराध आदि से शांत बने रहने की प्रार्थना की जाती है.

आखरी
बार शांति का उद्घोष आध्यात्मिक शांति के लिए किया जाता है. इसमे ईश्वर से प्रार्थना की जाती है की हम अपने रोजमर्रा में जो भी सामान्य या अतरिक्त कार्य करे उसमे हमें किसी भी प्रकार की बाधाओ का सामना करना पड़े.

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कलश पूजा क्यों की जाती है ?

आम
तौर पर हर हिंदू पूजा में एक कलश (जो प्रायः पीतल, ताम्बे या मिट्टी का) होता है जिस में पानी भरा जाता है. इसके मुंह पर आम की पत्तियां रखी जाती है, ऊपर एक नारियल रखा जाता है और फिर इसे लाल या सफ़ेद धागे से चारो और से बाँधा जाता है.

लोटे
में पानी भर कर चावल के कुछ दाने डालने की क्रिया को पूर्ण कुम्भ भी कहते है जो हमारे जीवन को भरा पुरा होना दर्शाता है.

चूँकि
पृथ्वी पर पहले केवल पानी था और पानी से ही जीव की उत्पत्ति हुई है इसलिए कलश का जल सम्पूर्ण पृथ्वी का द्योतक है. जिससे जीवन का आरम्भ हुआ था. नारियल और आम की पत्तियां सृजनात्मकता या जीवन को दर्शाती है.

धागे
से बाँध कर रखने का उद्देश्य विश्व की सम्पूर्ण उत्पत्ति को एक सूत्र में पिरोना दर्शाता है.

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शंख क्यों बजाया जाता है ?

शंख
बजाने से की मूल ध्वनि का उच्चारण होता है. भगवान ने श्रष्टि के निर्माण के बाद सबसे पहले शब्द का ब्रहानाद किया था. भगवान श्री कृष्ण के भी महाभारत में पाञ्चजन्य शंख बजाय था इसलिए शंख को अच्छाई पर बुरे की विजय का प्रतीक भी माना जाता है. ये मानव जीवन के चार पुरुषार्थ में से एक धर्म का प्रतीक है.
शंख बजाने का एक कारण ये भी है की शंख की ध्वनि से जो आवाज़ निकलती है वो नकारात्मक उर्जा का हनन कर देती है. आस पास का छोटा मोटा शोर जो भक्तो के मन और मस्तिष्क को भटका रहा होता है वो शंख की ध्वनि से दब जाता है और फिर निर्मल मन प्रभु के ध्यान में लग जाता है.

प्राचीन
भारत गाँव में रहता था जहाँ मुख्यत एक बड़ा मन्दिर होता था. आरती के समय शंख की ध्वनि पुरे गाँव में सुने दे जाती थी और लोगो को ये संदेश मिल जाता था कि कुछ समय के लिए अपना काम छोड़ कर प्रभु का ध्यान कर ले.

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उपवास का क्या महत्त्व है

उप
+वास=उपवास;मतलब आराध्य के नजदीक रहना ; उसको देखना उसको समझना उसके गुणों को जानना ; उसके गुणों का चिंतन करना ; गुणों को आत्मसात करना. भगवान हमें यह नहीं कहते कि तुम्हें उपवास करना ही है। यह सब तो हमारी मर्जी से चलते है। फिर क्यों उपवास को सही ढंग और सही नियम से किए जाए ताकि हमें सही अर्थ में उसका फल भी प्राप्त हो।

वैज्ञानिक
रूप से भी शरीर की शुद्धि के लिए व्रत का महत्त्व स्वीकार किया गया है | उपवास का सही अर्थ दिन में एक बार फल का आहार लेना, एक आसन पर बैठकर एक ही समय में खाना ताकि बार-बार खाने में आए, उपवास के हर दिन कोई एक अलग वस्तु का त्याग करना ऐसा ही कुछ होना चाहिए। लेकिन होता ऐसा नहीं और कुछ ही होता है। जब उपवास करने के दिन नजदीक आने लगते है तभी लोग घरों में अलग-अलग प्रकार की मिठाई, फलाहारी व्यंजन आदि बनाकर पहले से ही रख लेते है। और उपवास के दिनों में जो अलग-अलग व्यंजन बनेंगे सो अलग। ऐसे में उपवास का सही अर्थ क्या होता है यह समझना मुश्किल ही है।

दरअसल
सैकड़ों सालों से चले आए धार्मिक रीतिरिवाजों को हम तोड़-मरोड़कर अब इस्तेमाल कर रहे हैं। जरूरत है उपवास शब्द को सही तरह से समझा जाए और उसके बाद ही उपवास के बंधन में बंधा जाए।

उपवास
का अर्थ संयम भी है। संयम का अर्थ है दिनभर की चाय या खान-पान पर संयम करना। ऐसा नहीं कि भूख नहीं लगी हो फिर भी मुँह चलाते रहने के लिए कुछ कुछ खाते रहना। अगर उपवास के नाम पर तरह-तरह के व्यंजन ही बनाकर खाना हो और तरह-तरह के फल ही खाना हो, दिन भर मुँह चलाना हो तो फिर उपवास करना ही बेकार है.

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पुस्तक को पाँव से क्यों नहीं छूते है

हिन्दू
धर्म में ज्ञान को पवित्र और अलौकिक माना गया है. आप पाएंगे की हिन्दू धर्म में सरस्वती पूजा, दवात पूजा, आयुध पूजा भी की जाती है. किसी भी चीज़ को पाँव से छूना अपमानजनक माना गया है. पुस्तक सम्मानीय है और उसका दर्जा बड़ा है इसलिए पाँव से छूकर पुस्तक का अपमान नहीं किया जाता.

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