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कांग्रेस के वामपंथियों का बजट

पिछले पांच साल में वाम दलो को पानी पी पी कर कोसने और हर काम में अड़ंगा डाल कर समर्थन की लाचारी में सरकार ये दिखा रही थी की वो केवल सरकार चला रही थी और चाह कर भी देश को आर्थिक गति देने को मजबूर थी. लेकिन अब के बजट ने ये काफी हद तक ये सिद्ध कर दिया की उसे बहार के वामपंथियों की जरुरत नहीं है, क्योंकि कांग्रेस के अपने ही वामपंथी इस काम को करने के लिए काफी कुशल है.

बजट भाषण में आमतौर पर ठोस आंकड़ों और अनुमानों की बात होती है। पर 2009-10 के आम बजट के भाषण को देखें, तो पता लगता है कि इसमें बजट कम है, भाषण ज़्यादा है. बजट में खर्चों के पक्के इंतज़ाम हैं, पर आय के इंतज़ाम पक्के नहीं हैं. वित्त मंत्री नौ प्रतिशत विकास की बात कर रहे हैं लेकिन जमीनी हकीकत ये है की 2003 के बाद से इस समय विकास की दर सबसे कम है. कृषि क्षेत्र में चार फ़ीसदी से ज्यादा विकास की उम्मीद नहीं है. सर्विस क्षेत्र की हालत कितनी खस्ता है, ये किसी से छुपा नहीं है, निर्यात में लगातार गिरावट जारी है, उद्योग जगत बजट से निराश है. फिर ये 9 प्रतिशत की विकास दर आएगी कहां से ये तो भाषण लिखने वाला ही बतला सकता है, शायद बाबु मोशाय खुद भी नहीं बतला सकते.

बजट का सबसे डराने वाला आंकड़ा है -राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी. यह आंकड़ा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के छह प्रतिशत से ऊपर चला गया है. बजट के एक दिन बाद यानि कल आनन फानन में सरकार ने घोषणा कर दी की अगले साल ये घाटा छ से घटा कर पांच और फिर चार पर आ जायेगा. पर कैसे. कहने को चुनाव से पहले ये आंकडा ढाई प्रतिशत के पास था और अब छ ? यह घाटा कैसे कम होगा, इस के बारे में कोई पक्की योजना सरकार के पास नहीं है. राजकोषीय घाटे में कमी के उपाय किए जाएंगे, पर यह सब कैसे होगा, ऐसी कोई कार्ययोजना इस बजट में वित्त मंत्री ने पेश नहीं की है.

पिछले सालो तक विनिवेश के मुद्दे पर वाम दल को प्रगति में बाधक दर्शा कर आडे हाथो लेने वाले कांग्रेस सरकार को अब लकवा क्यों मार गया. स्पष्ट है ये नाटक केवल जनता की हमदर्दी पाने के लिए था. आर्थिक सर्वेक्षण ने बताया था कि विनिवेश प्रक्रिया से हर साल 25 हज़ार करोड़ रुपए उगाहे जा सकते हैं. पर जब बजट आया तो इस संबंध में कुछ भी नहीं बताया. वित्तमंत्री ने बड़ी बेशर्मी से बजट के बाद कहा कि विनिवेश के लिए बजट को ही माध्यम बनाना ठीक नहीं है. विनिवेश के लिए एक बड़ी तस्वीर सरकार के पास है पर इसके लिए बजट ही एकमात्र ज़रिया नहीं है. विनिवेश होगा पर सही समय आने पर. हालांकि विनिवेश कितना होगा, किन क्षेत्रों में होगा और किस समयावधि में कर लिया जाएगा, इसके बारे में बताने से वित्तमंत्री साथ मुकर गए. उन्होंने कहा कि सही समय आने पर पारदर्शी तरीके से विनिवेश का काम किया जा सकता है.

हम क्यों हर बार ये भूल जाते है की ये वो ही पार्टी है जिसने 1947 से आज तक के छ दशक में से पांच दशक तक देश की बागडोर संभाली है और लगातार राज करने के बावजूद एक समय 1991 में देश को दिवालिया बनाने की स्तिथि में ले आई थी जब सरकार को सोना गिरवी रख कर ॠण चुकाना पड़ा था. नेहरु के सरकारी उपक्रम के माध्यम से देश चला सकने वाले असफल अर्थव्यवस्था के मुलभुत ढाँचे को आमुचुल परिवर्तन कर, निवेशको को लाना, उस समय सरकार की इच्छा नहीं बल्कि मज़बूरी थी.

वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते दुनिया की निगाहे भारत और चीन पर थी. उम्मीद की जा रही थी की अपनी आर्थिक नीतियों से, दुनिया के एक तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले, ये दोनों देश इस मंदी का असर कुछ हद तक कम करने में कारगर सिद्ध होंगे. लेकिन भारत की आंतरिक राजनीति का खेल देश पर इस कदर हावी है की नेताओं को अपनी कुर्सी पक्की करने के लिए आम आदमी और देश को उन्नत बनाने की बलि हर बार चढानी पढ़ती है. वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते दुनिया की निगाहे भारत और चीन पर थी. उम्मीद की जा रही थी की अपनी आर्थिक नीतियों से, दुनिया के एक तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले, ये दोनों देश इस मंदी का असर कुछ हद तक कम करने में कारगर सिद्ध होंगे. लेकिन भारत की आंतरिक राजनीति का खेल देश पर इस कदर हावी है की नेताओं को अपनी कुर्सी पक्की करने के लिए आम आदमी और देश को उन्नत बनाने की बलि हर बार चढानी पढ़ती है. पिछले छ दशको से आज देश बिजली, पानी और सड़क जैसे मुलभुत ढांचे को तरस रहा है. लेकिन सरकार को पता है की उनकी अगले पांच साल की गद्दी सुरक्षित है. अभी से अगर राजकोषीय घाटे में कमी कर देंगे तो चार पांच साल बाद के बजट के समय जनता तो क्या तिलिस्म दिखायेंगे. ये राजनीति के धुरंधर खिलाडी अच्छी तरह से जानते है की अभी जनता को जितना चुना लगाना है लगा दो. जनता की यादाश्त बहुत छोटी होती है इसलिए चुनाव से ठीक पहले के बजट मायने सरकार बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखते है, चुनावो के बाद के बजट इतना मायना नहीं रखते और वो भी खास तौर पर जब आपके पास लगभग पूर्ण बहुमत हो. सरकार को पता है की उनकी अगले पांच साल की गद्दी सुरक्षित है. अभी से अगर राजकोषीय घाटे में कमी कर देंगे तो चार पांच साल बाद के बजट के समय जनता तो क्या तिलिस्म दिखायेंगे. ये राजनीति के धुरंधर खिलाडी अच्छी तरह से जानते है की अभी जनता को जितना चुना लगाना है लगा दो. जनता की यादाश्त बहुत छोटी होती है इसलिए चुनाव से ठीक पहले के बजट मायने सरकार बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखते है, चुनावो के बाद के बजट इतना मायना नहीं रखते और वो भी खास तौर पर जब आपके पास लगभग पूर्ण बहुमत हो.

तो प्यारे देशवासियों अब अगले दो तीन साल के लिए अपनी ऐसी तैसी करवाने को तैयार हो जाओ, 74 रूपये किलो तुअर की दाल खाओ
और ख़ुशी मनाओ की राष्ट्रपति भवन का बजट 21.39% बढ़ाकर 27 करोड़ रुपये कर दिया गया है जिससे आम आदमी की पहुँच से पूर्ण रूप से सुरक्षित, केवल कहने के लिए, हमारा नित नई गाडियों से अटा हुआ राष्ट्रपति भवन चमाचम रहे.

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