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वामपंथी भारतीय

हाल ही में १३ अप्रैल के एक समाचार में पढ़ा था कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी महासचिव प्रकाश कराट ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उनकी पार्टी इस बार कांग्रेस को किसी क़ीमत पर समर्थन नहीं देगी, भले ही उन्हें विपक्ष में बैठना पड़े.
मगर इसके साथ ही वह ये कहने से नहीं चूके कि ज़रूरत पड़ने पर कांग्रेस से समर्थन लेने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

ये कहना अतिशोक्ति कतई नहीं होगा की भारत के इतिहास में आज तक वामपंथी हमेशा ग़लत पक्ष में रहे हैं. भारत के इतिहास में ऐसे कई मौके आए है जब वामपंथियों ने राष्ट्रीय मुख्यधारा से बिल्कुल अलग रुख़ अपनाया है | कई हल्कों में ये आवाज़ उठती रही है कि वामपंथियों का यह रुख़ आम लोगों की राय को प्रतिबिंबित नहीं करता| भारत छोड़ो आंदोलन के समय की बात ही लीजिए | भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आधार पर भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन न करने का फ़ैसला किया कि उस समय सोवियत संघ हिटलर के नाज़ी जर्मनी के ख़िलाफ़ ब्रिटेन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहा था | अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार 'द पायनियर' के संपादक चंदन मित्रा कहते हैं, "शुरू से लेकर आज तक कम्युनिस्ट पार्टियाँ जो रवैया अपनाती रही हैं उसमें उनकी अंतरराष्ट्रीय सोच का प्रभाव ज़रूर मिलता है. चाहे वह 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन और गाँधी जी का विरोध रहा हो, चाहे 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के दौरान वामपंथियों के एक वर्ग ने चीन की तरफ़दारी की जिसके चलते पार्टी में विभाजन हो गया." चंदन मित्रा आगे कहते हैं, "कुछ दिन पहले मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के पोलित ब्यूरो में कुछ नेताओं ने कहा कि भारत को अपने खनिज पदार्थ ख़ासकर कच्चे लोहे का चीन के अलावा कहीं निर्यात नहीं करना चाहिए.

अगर 1962 की बात जाने भी दी जाए तो सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन न करने का फ़ैसला किया और गाँधी जी का विरोध किया | 1948 में भारत की आज़ादी के बाद बीटी रणदवे के नेतृत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लाइन ली कि यह आज़ादी झूठी है. बात यहाँ तक गई कि इसका विरोध करने पर पीसी जोशी को पार्टी से निकाल तक दिया गया. जब भारत ने 1998 में परमाणु विस्फोट किया तो वामपंथियों ने उसका विरोध किया और कई राजनैतिक विश्लेषकों ने उनकी यह कहकर आलोचना की कि वो राष्ट्रीय हितों और वास्तविकताओं से काफ़ी दूर चले गए हैं | 2008 में परमाणु मुद्दे पर भी वामपंथी दलों का सुर कुछ और ही है और इस मुद्दे पर उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया |

किसी विदेश नीति के मुद्दे पर सरकार गिराना या गिराने का प्रयास करना एक किस्म की कमज़ोरी है क्योंकि भारत का आम नागरिक विदेश नीति से जुड़ा हुआ नहीं है. कोई यह कहता है कि वामपंथियों का विरोध राष्ट्रीय स्वभाव के साथ जुड़ा नहीं है तो विदेश नीति से जुड़े मुद्दे हमेशा कुछ लोगों के ही हाथ में होते हैं. आम जनता का संबंध घरेलू मु्द्दों से ही अधिक होता है. आम जनता को तो पता ही नहीं है कि अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते के तकनीकी पक्ष क्या-क्या हैं.

ज्योति बसु देश में विदेशी निवेश का विरोध करते रहे और पश्चिम बंगाल में पैसा लगवाने के लिए विदेशी निवेशको से मिलने विदेश गए. यानि देश में निवेश हो तो विरोध और खुद भीख मांग कर निवेश के नाम पर पैसा वसूले तो सही. जबकि सबको पता है को वहां कोई निवेश आसानी से नहीं हो सकता. सिंगुर में नेनो का उदहारण अभी सबके सामने ताजा ही है. नेनो परियोजना स्थल अब बाजमेलिया और गोपालनगर गांव के पशुओं का चारागाह बन गया है. इलाक़े में ज़मीन की आसमान छूती क़ीमतें एक बार फिर यथार्थ की धरती पर आ गई हैं.

दरअसल ये सब कुछ फिरकापरस्त राजीनीति और कुर्सी हथियाने का हिस्सा होने के अलावा कुछ नहीं है. जनता बेवकूफ बनती आई है और बनती रहेगी. ये ही इस देश की नियति है.

2 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

वामपंथी, देश के सबसे बड़े गद्दार है

dschauhan said...

वामपंथी देश की प्रगति के स्पीड ब्रैकर, मौका परस्त्, और सत्ता के दलाल हैं! इनका कोई ईमान धर्म नहीं है!