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गरीब देश भारत के चुनाव ?

आपको ये जानकर हैरानी होगी कि भारत में आने वाले लोकसभा चुनाव का ख़र्च अमरीका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के ख़र्च से ज़्यादा होने का अनुमान है. वो भी ऐसी परिस्थिति में जब अमरीकी राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया क़रीब साल भर चलती है जबकि भारत में लोकसभा चुनाव महीने भर में निपट जाते हैं.

सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत में लोकसभा चुनाव में 10 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च हो सकते हैं. जो क़रीब दो अरब अमरीकी डॉलर है.

दूसरी ओर अमरीका के संघीय चुनाव आयोग के आँकड़े बताते हैं कि अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में जीते बराक ओबामा और अन्य उम्मीदवारों का कुल ख़र्च क़रीब आठ हज़ार करोड़ रुपए था.

सीएमएस के सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत में लोकसभा चुनाव का अनुमानित ख़र्च 10 हज़ार करोड़ रुपए हैं और इसमें से एक चौथाई यानी क़रीब 2500 करोड़ रुपए इस तरह ख़र्च होंगे, जिनका कोई लेखा-जोखा नहीं होगा. सर्वे में यह भी बताया गया है कि ऐसे पैसे उम्मीदवार अपने मतदाताओं को बाँटे सकते हैं.

अमरीका में हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव को अब तक का सबसे महंगा राष्ट्रपति चुनाव माना गया था. इस चुनाव का ख़र्च वर्ष 2004 में हुए राष्ट्रपति चुनाव से दोगुना था.

भारत के हिसाब से देखें तो इस बार लोकसभा चुनाव में होने वाला अनुमानित ख़र्च पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले दोगुना है. पिछले लोकसभा चुनाव का ख़र्च क़रीब 4500 करोड़ रुपए था.

अब जरा एक नज़र संसद के काम काज पर भी डाल ले. क्या आप जानते है की संसद पर प्रति मिनट बीस हजार रूपये तथा एक दिन का बहत्तर लाख रूपयों का खर्च होता है। इस खर्च को क्या सांसद व्यर्थ नहीं कर रहे।

संसद की चुनाव दर चुनाव घटती बैठकें और बढते बहिष्कार ने भारतीय प्रजातंत्र पर प्रश्न खडा कर दिया है। 14वीं लोकसभा में कई ऐसे सांसद थे जिन्होंने इसमें होने वाली सभी मीटिंग्स को नियमित तौर पर अटेंड ही नहीं किया। इसमें सबसे पहला नाम आता है गोविंदा अरुन आहुजा को जो अपने पहली पसंद यानी बॉलीवुड में व्यस्त दिखे और ये भूल गए कि उन्हें लोकसभा भी अटेंड करनी है। वहीं धर्मेंद्र जो बीकानेर से चुनाव लड़ते हैं वहां की जनता की भलाई से ज्यादा अपने बेटे के करियर बनाने में ही जुटे रहे। बेचारे शिबु सोरेन तो जेल के ही चक्कर काटते रह गए। ममता बनर्जी भी कुछ कम हीं दिखीं। पूरा साल उन्होंने नैनो और टाटा से लड़कर ही बिता दिया लेकिन संसद में जाने का वक्त नहीं निकाल पाईं। समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव कहते हैं कि मैं अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता से ये वादा करता हूं कि अलगी बार मौका मिलने पर मैं बहुत अच्छा काम करूंगा।

14वीं लोकसभा के दौरान जिन सांसदों की 30 परसेंट से भी कम उपस्थिति रही है वो है अतीक अहमद-20 परसेंट, बाबू लाल मरांडी-29 परसेंट, दयानिधी मारन-10 परसेंट, धर्मेंद्र-24 परसेंट, गोविंदा-12 परसेंट, एम एच अंब्रीश- 27 परसेंट, ममता बनर्जी-18 परसेंट, मोहम्मद शाहबुद्दीन-24 परसेंट, पप्पू यादव-4 परसेंट और शिबु सोरेन-14 परसेंट।
कुछ और आगे बढे तो देखेंगे कि उपस्थिति की इस लिस्ट में कुछ खास लोगों के नाम भी शामिल हैं। मिसाल के तौर पर सोनिया गांधी जिनकी उपस्थिती 36 परसेंट है, एच डी देवेगौड़ा 39 परसेंट, प्रिया दत्त 46 परसेंट, नवजोत सिंह सिद्धू 45 परसेंट और जया प्रदा 43 परेंसट।
वैसे सिक्के का दूसरा पहलु भी है पर वो भी उतना ही अफसोसजनक है. तेलगु देसम पार्टी के इराबेल्ली दयाकर राव की अगर बात करें तो इनकी अटेंडेंस है 100 परसेंट। लेकिन वो बेकार ही थी क्योंकि अगर डिबेट रिकॉर्ड देखें तो इन्होंने कभी संसद में कोई सवाल नहीं पूछा और न ही किसी बहस में हिस्सा लिया. बस केवल सौ परसेंट अटेंडेंस दिखाई.

गत पांच वर्षों में साठ से अधिक सांसदों द्वारा जन महत्व का एक भी सवाल नहीं पूछना क्या मतदाताओं के प्रति विश्वासघात नहीं है?

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