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स्वतंत्र भारत की राजनीति के साठ साल

हिंदुस्तान की राजनीति जब आज़ाद भारत में क़दम रखती है तब से लेकर अब तक के सफ़र में बहुत बदलाव हुए हैं. आज़ादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में देश आगे बढ़ना शुरू करता है और चीन से युद्ध तक आता है. इस दौर में सबसे अच्छी बात यह थी कि अधिकतर लोग ऐसे थे जो देश की आज़ादी के लिए लड़े थे.

अलग-अलग विचारधाराओं के लोग थे. लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे लोग अलग दिशा में चल निकले थे. कांग्रेस में भी वैचारिक भिन्नता थी, महावीर त्यागी और नेहरू के विचार अलग थे पर सार्वजनिक रूप से या व्यक्ति विशेष पर आरोप-प्रत्यारोप की परंपरा नहीं थी. विरोधों, मतभेदों और वैचारिक भिन्नता के बावजूद सभी एक बात पर सहमत थे कि इस देश को आगे बढ़ाना है.

इसी बीच केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार बना ली. यानी आज़ादी के 10 साल के अंदर ही केंद्र और अन्य राज्यों में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी आम लोगों ने लोकतंत्र की ताकत का एक उदाहरण पेश कर दिया. इससे लगा कि हमारे देश का लोकतांत्रिक स्वरूप मज़बूत होता जा रहा है.

उस समय भी राजनीतिक हमले होते थे पर नीतियों को लेकर, विचारधाराओं को लेकर. कृष्ण मेनन जी के ख़िलाफ़ नीतियों के विरोध में हुए आक्षेपों से सार्वजनिक रूप से राजनीतिक हमलों की शुरुआत हुई पर निजी आक्षेप अभी भी नहीं थे.

फिर लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी को लेकर कांग्रेस दो फाड़ हुई और वहीं से निजी आक्षेपों का दौर भारतीय राजनीति में शुरू हुआ पर यहाँ भी एक मर्यादा बाक़ी थी.

इंदिरा गांधी ने भारतीय राजनीति को फिर से दो हिस्सों में बाँट दिया और अब लड़ाई अमीरों और ग़रीबों के बीच की बन गई. आगे चलकर उनके मतभेद कामराज जी से भी बढ़े और उन्होंने अपने को अकेला पाते हुए संजय गांधी को राजनीति में उतारा. इसी दौरान देश में 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा. भारतीय राजनीति का यह सबसे बुरा दौर था

हालांकि आपातकाल में शुरुआत के कुछ महीने बहुत अच्छे काम हुए. क़ानून व्यवस्था की चरमराई हालत सुधरी पर यह तबतक था जबतक संजय गांधी को बागडोर नहीं सौंप दी गई. संजय गांधी को लाना और उनका निरंकुशता के साथ काम करना और इस तरह संविधान की मर्यादा और संवैधानिक व्यवस्था को पीछे कर देना ही भारतीय राजनीति में एक ऐसी परंपरा को पैदा कर गया जो हम आज तक झेल रहे हैं.

इसके बाद सत्ता बदलीं पर एक ग़लत परंपरा की शुरुआत देश की राजनीति में हो चुकी थी जो बाद में कई लोगों का चरित्र बनी.

वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई जिसके बाद सुनियोजित रूप से सिखों के ख़िलाफ़ दंगे हुए. दंगों में सिखों को बचाने की कोशिश करने वाले कांग्रेसियों की नज़र में गद्दार थे. यह राजनीति में वफ़ादारी की एक नई परिभाषा थी.

इसके बाद राजीव आए, वो संजय से अलग थे. शांत थे और शरीफ़ थे. इसके बाद 1989 में राजनीति ने फिर पलटी खाई और अब पहली बार ऐसा हुआ जब किसी मंत्री ने प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. बोफ़ोर्स तोप सौदे को लेकर राजीव गांधी पर निजी रूप से आरोप लगने शुरू हुए और भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई और खुलकर निजी स्तर पर आरोप लगाने की शुरुआत यहीं से हुई.

इसी दौरान बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव हुआ. राजनीति से जुड़े कुछ लोगों को लगा कि चुनाव जिताने-हराने में बाहुबलियों की महत भूमिका हो सकती है और इसलिए इनका सहयोग लिया जाए. यहाँ से राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत हो गई जो बाद में दूसरे राज्यों में भी शुरू हो गया.

कुछ ही दिनों में बाहुबलियों को लगा कि अगर हम इनको बना सकते हैं तो ख़ुद क्यों नहीं बन सकते हैं. यहाँ से इस देश की बदकिस्मती की एक और दास्तां शुरू होती है जिसका रोना हम आज तक रो रहे हैं.

गुंडे राजनीति में आए और बड़े पदों पर पहुँचे और जो उनसे अपेक्षित था, आज वही देश की पूरी राजनीति में हो रहा है. आज कोई मूल्य नहीं हैं. कुछ गिनती के लोग अच्छे भी हैं पर हद यह हो गई है कि आज जब कोई गांधी टोपी पहनकर निकलता है तो बच्चे कहते हैं कि देखो बेईमान नेता जा रहा है.

और विडंबना यह है कि यह केवल राजनीति का हाल नहीं है, जब आम आदमी ने देखा कि गुंडे सत्ता हासिल कर रहे हैं तो उसकी मानसिकता भी ताक़त हासिल करने की हो गई और आज पूरा समाज उसी तरह का व्यवहार करता नज़र आ रहा है.

समाज का हर वर्ग भ्रष्ट हो चुका है और राजनीति को देश के इस चरित्र का श्रेय जाता है. जो साफ़ छवि के हैं उन्हें ज़बरदस्ती फंसाया जा रहा है या भ्रष्ट बनाया जा रहा है. सचमुच देश की ये दुर्दशा देख कर रोना आता है.